Thursday, July 15, 2010

सलकनपुर

मेरा बचपन रेहटी में गुजरा। प्राइमरी और मिडल स्कूल की शिक्षा वहीँ हुई। रेहटी तब एक छोटा सा गाँव था जो की कसबे का स्वरुप लेने के लिए बेताब था। प्राइमरी के दिनों से ही हम सलकनपुर जाया करते थे। रेहटी के पंडित जी ही वहां पुजारी हुआ करते थे सो मंदिर में पहुँचने पर बिना चडावे के झोला भर प्रसाद मिल जाया करता था। नारियल चिरोंजी खाते हुए नीचे उतर आते थे। तब न तो सीडिया बनी थी और न ही ऊपर तक जाने के लिए रोड था। तब सलकनपुर देवी का मंदिर एक छोटा सा मंदिर था। नवरात्रि के समय सलकनपुर में एक मेला लगा करता था जो की अब भी लगता हे और उस समय मंदिर पर अधिकाँश परिवार किसी बच्चे का मुंडन कराने जाते थे। मेरे परिवार के भी कई बच्चो का मुंडन सलकनपुर में हुआ हे।
सलकनपुर मंदिर से सामने सीडियो की और देखे तो दूर कहीं कुछ घर दीखते हे जो की मरदानपुर गाँव हे। एक समय में बुधनी से पहले यही तहसील हुआ करती थी। मरदानपुर के पास ही एक और क्षेत्रीय महत्त्व का स्थान हे आवंली घाट। अमावस्या के दिन स्थानीय लोग यहाँ नर्मदा स्नान के लिए आते हे।
सलकनपुर जाने के समय रास्ते में कोई न कोई खेत वाला गेहूं की बाली भूंज्ता मिल जाता था तो मुठ्ठी भर दाने लेकर आगे बढ़ जाते थे। मुझे याद हे की उन दिनों आज के पामिस्ट सैय्यद रफत अली चकरी घुमाने वाला खेल खिलाया करते थे। कौन जीता कौन हारा देखने के लिए हम भी उस मजमे में खड़े हो जाते थे लेकिन एक बार हमारे मास्टर स्वर्गीय मजहर अली की डांट ने हमें उससे दूर कर दिया। स्वर्गीय मजहर अली ने मुझे पहली कक्षा से पांचवी तक पढ़ाया हे। मेरे साथियो के जीवन पर उनका क्या प्रभाव पडा यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन गलत बात के खिलाफ आन्दोलन करने का पाठ जो उन्होंने पढ़ाया और जीवन में करके दिखाया वह मुझमे आज भी हे।
वह जब हमारे घर आते थे तो मैं उनके पैर छूता था, उन दिनों यही परंपरा थी।
आज से कोई दस बारह साल पहले में भेंडिया देखने के लिए मरदानपुर गया था। जो निशान मुझे मिले थे वह सियार के थे। बचपन में रेहटी से सलकनपुर के बीच कई बार चीतल दिख जाया करते थे अब तो अगर खरगोश भी दिख जाए तो भाग्य हे। चीतल अब सेमरी के उस पार देलावादी के पास ही बचे हे।
बायाँ से सेमरी आना बड़ा आसान हे। मैं सुबह घर से दूरबीन लेकर निकलता और कोई डेढ़ दो घंटे में चिड़िया देखते हुए सेमरी पहुँच जाता था । बस स्टैंड पर एक छोटी सी दूकान थी उस पर एक चाय पी और बस में बैठकर दो घंटे में वापस बायाँ पहुंचता।
उस पैदल रास्ते में मैंने शेर और पेंथर के पंजो के निशान देखे हे और एक बरसात में बायाँ के तालाब पर शेर भी देखा लेकिन लगता नहीं हे की अब वहां कोई जानवर होगा।
सलकनपुर पहाड़ के जंगल सलकनपुर की वजह से ख़त्म हो गए तो अब उस क्षेत्र में जानवर कहाँ बचेंगे।
देवी जी अब विंध्यवासिनी हो गई हे और अब तो वहां रोप वे भी शुरू हो गया हे, पचास रूपये में आना जाना।

Wednesday, July 14, 2010

नामदाफा

मैं नामदाफा जाने के बहुत उत्साहित था और जाना भी चाहता था लेकिन मौसम और वहां के स्थानीय मौसम ने मुझे हतोत्साहित कर दिया और मुझे अंतिम समय में मेरा कार्यक्रम बदलना पडा। बड़ा अफ़सोस हुआ लेकिन इस तरह के कार्यक्रमों में मैं ज्यादा रिस्क नहीं उठाना चाहता। सितम्बर मैं पचमढ़ी जाने का विचार हे और उसी समय एक यात्रा चकराता की पुनः करना चाहूंगा।
बगीचे के लिए कुछ और पौधे चाहिए जिसके लिए जबलुर की एक यात्रा आवश्यक हे।
बरसात हाल फिलहाल तो गत वर्ष से अच्छी हे आगे की भगवान् जाने। कर्मचारियों ने फिर दुखी किया और उनकी वजह से फिर भोपाल की यात्रा स्थगित करनी पड़ी। तत्काल की टिकट के ७०० रूपये डूबे सो अलग।

Friday, July 2, 2010

में इस बात को बहुत पहले से जानता था की एक दिन मुझे इस विषवमन का सामना करना पड़ेंगा और वहीँ हुआ भी।ढेर सारे पुराने सूखे घाव फिर से हरे हो गए। दिमाग फिर उस गुस्से से भर गया। लेकिन यह सब क्षणिक भर की ही बात थी जैसे ही उसने अपना संबोधन बदला वह सारा गुस्सा क्षणिक भर में काफूर हो गया। मुद्दों पर आधारित बातें होने लगी। पहले तो उसने सारी बाते जानने की कोशिश की लेकिन जब मैंने सच बताना शुरू किया तो मुझे कई बातों का जबाब नहीं मिला। मैं वह सारे पुराने पत्र नहीं ढूंढना चाहता जो की मैंने लिखे थे और मेरे पास वापस आ गए थे। मैंने वह सब सहेज कर रख लिए थे क्योंकि एक दिन वह मेरे पक्ष के सबसे गवाह होंगे लेकिन आज मैं उन्हें ढूँढने की जरूरत महसूस नहीं करता। मैं यह तो जानता था की यह लोग झूठ बोलते हे लेकिन कितना झूठ बोलते हे यह अब पता चला। दस हजार रूपये लेकर भाग जाने का मतलब हे सीधे सीधे चोरी का आरोप लगाना। मुझे यह सुनकर बड़ी तसल्ली हुई की चलो सच का एक भाग तो स्वतः सामने आया। विगत कुछ दिनों में मेरी अपने सारे मित्रों से बात हुई और सब इस बात से सहमत थे की हाँ यदि वह मेरे पास आना चाहता हे तो मुझे उसका पूरा पूरा ख्याल रखना चाहिए। के भी इस बात से सहमत हे।

Wednesday, June 23, 2010

आखिर किसे दोष दिया जाए.

यह सब क्यों लिख रहा हूँ ?? इसलिए क्योंकि अब इन्हें पड़ने वाला एक पाठक आ गया हे।
मेरी शादी को हुए अभी कुछ ही सप्ताह हुए थे। हम पति पत्नी साथ साथ रहने को बड़े उल्लासित थे लेकिन अभी कुछ बाधाये थी। एक बाधा थी की मेरी पत्नी अभी कालेज में पढ़ रही थी और उसके माता पिता परीक्षा से पूर्व मेरे साथ भेजने में उत्सुक नहीं थे। खैर होली के बाद कुछ ऐसा संयोग बना की हमने हम दोनों को खंडवा से सतना की रेलयात्रा के लिए तय्यार पाया। वह बिना आरक्षण वाली यात्रा थी और हमारा समय दरवाजे के पास सूटकेस पर बैठकर कटा। उस समय दुख सूटकेस पर बैठकर जाने का नहीं था बल्कि साथ साथ यात्रा करने का असीम उत्साह था। क्या क्या बातें हुई यह तो अब अच्छी तरह से याद नहीं हे लेकिन सतना में सुनील अवस्थी के पास खाना खाकर हम बस द्वारा खजुराहो के लिए रवाना हो गए। घर पत्नी के लिए सजाया जावे या फिर पत्नी आते ही घर अपने आप सज जाता हे वाली दुविधा मेरे साथ थी। उन दिनों फोन करने के लिए भी घंटो लाइन में खड़े होकर इन्तजार करना पड़ता और औरसो फोन करके आने की सूचना देने वाला काम भी नहीं हो पाया। । हमें पहुँच कर हमने उस उस धुल भरे मकान का दरवाजा खोला और बड़े ही गर्व से जिन्दगी मकान को jisme पिछले दस दिनों से सफाई भी नहीं हुई थी अपनी पत्नी को dikhaayaa ।
बाद में किसी ने आकर मकान मकान साफ़ किया aur hame चाय पिलाई। jindagi कुछ ही देर में लाइन पर आ गई । मातादीन ने खाने के लिए बुलाया और खाने से पहले आमरस पीने को दिया। बगीचे में कुछ आम के पेड़ थे। इन आमो को हमने बड़ी मुश्किल में लोगो की नजरो से बचाया था। यह आमरस पत्नी को इतना अच्छा लगा की अब तो हम सुबह शाम इसे ही खाने जैसा पीने लगे।
कुछ दिनों बाद पत्नी ने बुखार जैसा रहने की शिकायत की। उन दिनों के बुखार में यह बुखार बड़ा ही मामूली लगा और हमने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ दिनों में अस्पताल जाने की नौबत आ गई। डाक्टर ने कहा की चेचक हे और पडोसी उसे माता का प्रकोप बता रहे थे। खैर हमने उसे चेचक ही माना। जब चेचक के दाने फूलकर पत्नी के कपड़ो से चिपक गए तो उन्हें निकालना बड़ी ही कष्टप्रद प्रक्रिया थी।
निर्णय लिया गया की कपडे न रहे तो चिपकेगा क्या? अब पत्नी केवल चादर ओड़ कर लेटी रहती थी। मैं अपनी दोनों नौकरी कर रहा था।
इस चेचक के लिए किसे दोष दे?
वह तो शायद आज भी आम को ही दोषी ठहरा देगी।
बेचारा आम।
हमने आज भी लेकिन आम खाना नहीं छोड़ा.

Sunday, May 30, 2010

Gir


गिर के बारे में सुना बहुत था लेकिन देखा कभी नहीं था तो जब उरी ने गिर जाने का कार्यक्रम बनाया और मुझे भी आने को कहा तो मैं सहर्ष तय्यार हो गया। यहाँ से गिर जाने का मतलब हे ३६ घंटे की थकाऊ यात्रा??

सुबह पांच बजे घर से निकल कर कटनी पहुंचा तो पता चला की महाकोशल नब्बे मिनट देर से आएँगी। लगा शुरुआत अच्छी नहीं हे। जबलपुर पहुँचते तक सोमनाथ एक्सप्रेस का समय हो गया था तो दो पानी बोतल लिया और अपनी सीट पर जा बैठा। ५ मई का दिन और ४४ डिग्री तापमान में शयनयान की यात्रा। मान कह रहा था की काहे को हामी भर ली स्काइप पर बात कर लेते। रानी और उनकी बिटियाँ इटारसी स्टेशन पर चाय लेकर आई थी। होशंगाबाद स्टेशन पर ओमहरी खाना लेकर आये थे और उनके साथ माताराम भी आई थी। उम्र की वजह से अब उनसे ज्यादा चलते नहीं बनता हे। उनका डर था की शायद में फिर इस बार घर न आऊं क्योंकि पिछली बार जब भोपाल गया था तो इतनी जल्दी में था की होशंगाबाद नहीं गया था इसलिए वह मुझसे मिलने स्टेशन तक आई थी। मैंने उन्हें आश्वस्त किया की वापसी में मैं होशंगाबाद आऊँगा फिर बांधवगढ़ जाऊंगा। ओमहरी खाना लेकर आये थे सो कम से कम एक समस्या तो हल हुई। गुजरात की मेरी यात्राओं का सबसे बड़ा दुःख हे की वहां ट्रेन में सुबह चाय नहीं मिलती और जब मिलती भी हे तो कप इतना छोटा होता हे की वह पांच रूपये की डकैती जैसा लगता हे इसलिए मैं चाय खरीदने से इनकार कर देता हूँ। अखबार मिलना तो और भी दूर की कौड़ी साबित होते हे। अहेमेदाबाद में सुबह मुकेश मिलने आये। दोनों ने स्टेशन पर एक चाय पी कुछ अपने रोने रोये, परिवार की बाते की इतना में गाडी चलने का समय हो गया था। गुजरात का एक नक्शा दे गए थे मुकेश। जिसने बड़ी सहायता की रास्ते में तसल्ली देने में की बस अब इतना ही तो और बचा हे जूनागढ़। स्टेशन से एक टेक्सी की, कुछ आम, तरबूज-खरबूज खरीदे और अगला सफ़र सासन का शुरू। जूनागढ़ से सासन कुल ५५ किलोमीटर हे। यदि बस से जाना चाहे तो यात्रा बुरी नहीं। बस भी लगभग उतना ही समय लेती हे जितना टेक्सी। हमारे आगे आगे एक बस चल रही थी जो की सासन पहुँचने तक हमारे आगे आगे थी बस शहर में ही हम उससे बाजी जीत पाए थे जो की हारे हुए जुआँरी के आखिरी दाव जैसा किस्सा था। गुजरात पर्यटन और वन विभाग सिंह सदन नामक एक होटल चलाते हे जो की शासकीय हे। उसे देखने के बाद मैंने सोचा की बेहतर हे की में बाहर कहीं कोई होटल देखूं । सड़क पार कई होटले हे। मेरी-तलाश होटल अन्नपूर्णा पर जाकर ख़त्म हुई। साफ़ सुथरा छोटा सा ऐ सी लगा हुआ कमरा। जगह छोटी हो या बड़ी सस्ते होटलों में बाथरूम अभी भी साफ़ नहीं होते हे। यहीं हाल अन्नपूर्णा का भी था। मेरे शिकायत करने के बाद मुझे आश्वस्त किया गया की इस साल बरसात में इस शिकायत को दूर कर दिया जावेगा।

रात के ग्यारह बजे उरी और उनके मित्र ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। कुछ देर उनसे बात हुई और सुबह का कार्यक्रम जानकर उनने विदा ली।

उनके साथ एक गाइड राजकोट से आये थे। बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। वन विभाग के स्थानीय कर्मचारियों पर उनका अच्छा प्रभाव था। सुबह हम लोग साथ साथ घूमने गए। एक बब्बर शेर को सड़क पर गाड़ियों के आगे आगे चलते हुए देखा। यह मेरा पहला जंगली बब्बर शेर था जिसकी मेने फोटो खींची। फिर कुछ ही मिनटों बाद वन विभाग के कर्मचारियों ने उसकी वो गत बनाई की मुझे प्रार्थना करनी पड़ी की हे इश्वर अगले जनम में मुझे कम से कम बब्बर शेर तो मत बनाना।

नाश्ते के लिए चयनित किये गए स्थान को देखकर मैं चकित था। यहाँ गाइड महोदय पर्यटक के पैसे के दम पर ड्राइवर और वन विभाग के गाइड का पूरा ध्यान रखते हे। गाइड महोदय ने उरी को कहीं एक रात के लिए ले जाने का कार्यक्रम तय किया था। मुझे देखकर साफ़ साफ़ बता दिया की वहां यह नहीं जा सकते। मैंने भी सोचा की ठीक हे इस बेचारे को क्या पता यह तो अपने धंधे की सोच रहा हे तो इस दाल भात में मैं क्यों मूसरचंद बनू।

मैं दोपहर में और अगली सुबह अकेला घूमने गया। शेर दिखे लेकिन कोई ख़ास नहीं।

अगले दिन दोपहर में उरी वापस आये तो पता चला की सिंह सदन में उनके लिए कमरा नहीं हे। घबराए से मुझे फोन किया। मैंने भरोसा दिलाया की अन्नपूर्णा आ जाओ व्यवस्था हो जायेगी। सिंह सदन से एक तिहाई कीमत में एक ठीक ठाक कमरे की व्यवस्था हो गई। उरी ने बताया की पिछले २४ घंटो में केवल एक चिड़िया का फोटो खींचा हे वह भी कोई विशेष नहीं। जमीन पर सोये। खाना भी कोई ठीक नहीं था। जैसे तैसे खाना खाया। कहीं घूम नहीं पाए और एक दिन बर्बाद करके वापस आ गए। हमने अब उसे छोड़ दिया हे। अब केवल हम लोग ही होंगे। उरी ने जब यह कहा तो मैंने कहा ठीक हे।

गिर में यदि आप स्थानीय भाषा नहीं जानते हे अथवा यदि आपके स्थानीय कर्मचारियों से सम्बन्ध नहीं हे तो आप एक सामान्य पर्यटक की तरह पार्क में घूम कर वापस आ जायेंगे। स्थानीय भाषा अथवा व्यक्ति से सम्बन्ध होने पर आपके लिए सारे द्वार खुल जाते हे। शेरो को खदेड़ कर आपकी जीप के सामने लाया जा सकता हे अथवा आपको पैदल उतारकर शेर दिखाने के लिए जंगल में ले जाया सकता हे। मैं यह सब इसलिए लिख रहां हूँ की मैंने यह सब प्रत्यक्ष में होते देखा हे। पैसा दोनों ही शर्तो में देना पड़ता हे। यह सब काम उन लोगो के लिए रोजमर्रा की बाते हे।

एक बार जब उरी को उतार कर ले जाया गया तो मैं भी उनके साथ गया और जो दिखाया गया उसके लिए मैं सोच रहा था की यहाँ क्या ऐसे फोटोग्राफर आते हे जो की यह देख कर खुश हो जाते हे। मुझे तो उसमे कोई विशेष फोटो नजर नहीं आई किन्तु बाद में देखा की उस समय के फोटो ७०% छोटे कर के लोगो को दिखाए जा रहे थे और लोग उसकी तारीफ़ कर रहे थे। अब डिजिटल का सारा खेल समझ में आ रहा था।

हमने जंगल में पुनः उतरने के लिए मना किया तो हमें ज्यादा अच्छे फोटो मिले।

वापसी में मुकेश जी को पुनः क्रतार्थ किया और शाम को घर वापसी की यात्रा शुरू kee।

गिर का तमाशा देखने दिखाने के लिए एक बार पत्नी को लेकर फिर जाऊंगा और फिर यदि कोई व्यावसायिक बंधन नहीं हुआ तो गिर देखने की फिर कोई इच्छा नहीं.

Saturday, April 3, 2010

भोपाल यात्रा.

शायद यह मेरी सबसे छोटी भोपाल यात्रा थी। कुल चार घंटे भोपाल में बिताए और वापस घर। मेरी ट्रेन यात्रा हमेशा दुखदाई होती हे। उमरिया से अमरकंटक ट्रेन में 2 A/C में यात्रा की। जबलपुर तक यह यात्रा सूअर के बाड़े में सोने समान थी। एक यात्री मेरे पास वाली ही सीट पर खुर्राटे ले रहे थे। यह खुर्राटे इतने जोर के थे की मैंने तुरंत ही परिचालक से मेरी सीट बदलने की सिफारिश की लेकिन दुर्भाग्य से एक भी सीट खाली नहीं थी। पूरी यात्रा में मैं कुल दो घंटे सो पाया। वापसी की यात्रा भी कोई ज्यादा सुखदाई नहीं रही। कुल एक घंटे सो पाया तो जब वापस घर पहुंचा तो वह रात भी कुल दो घंटे और बची थी।
शैलेश के मकान की पूजा के अवसर पर भोपाल जाना हुआ था। सोनवाने से मुलाक़ात हुई, पंकज को धन्यवाद की वह मुझे लेने स्टेशन तक आये। संजय से पता चला की उनके यहाँ पिछली २६ मार्च को चोरी हुई थी जिसमे की लगभग १० लाख की कीमत के कैमरे चोरी हो गए थे।
होशंगाबाद मैं ओमहरी आये थे तो इटारसी में रानी और उनकी बिटिया आई थी। यात्रा का मकसद सिद्ध हुआ यह सबसे बड़ी बात थी।

Thursday, April 1, 2010

Rajasthan

मैं मेरी दोनों यात्राओं को एक साथ लिख रहां हूँ क्योकि यह दोनों यात्राये लगभग एक सी ही थी। फिरोजाबाद आगरा के बाद हम जयपुर पहुंचे। उस समय जयपुर नहीं रुके क्योंकि हमें अगली सुबह दुन्द्लोंद जाना था। दुन्द्लोद में मारवाड़ी घोड़ो की दौड़ हो रही थी जिसे की मुझे फोटोग्राफ करना था। ६ दिन वहां रहे, घोड़ो के कई नामचीन लोगो से मुलाकात हुई। इसके बाद मैं फिर जोधपुर गया और इस बार मेरा मकसद था खीचन जाना। सुनील मुझे पहले एक गाँव में ले गए। वहां जाने के बाद वहां आने का मकसद पता चला। गाँव के चारो और चिंकारा घूम रहे थे। कुछ ही देर में सारे चिंकारे एक जगह इकट्ठे होने लगे। मुझे इससे आगे और क्या चाहिए था। सुनील और उनकी बिटिया लोगो से बात करते रहे और मैं फोटो खींचता रहा। इसके बाद सुनील मुझे खीचन लेकर गए। मैं भी खीचन कई सालो से जाना चाहता था लेकिन कभी संयोग नहीं बन रहा था। खीचन पहुँच कर हम कुर्जा को ढूंढ रहे थे की एक सड़क इनारे मुझे १०० से भी ज्यादा कुर्जा बैठे दिखे। मैं फ़ौरन अपने काम में मशगूल हो गया। आप पैदल कुर्जा से १०० मीटर की दूरी तक जा सकते हे। इतना बहुत था मेरे लिए। फिर हमने देखा की आसमान में ढेर सारे कुर्जा उड़ उड़ कर एक ही दिशा में जा रहे हे तो हम भी उस दिशा में चल दिए। थोड़ी ही देर में हमें चुग्गाघर दिखाई पड़ गया। यहाँ लगभग एक हजार पक्षी दाना चुग रहे थे। मैं अपने काम में मशगूल था और सुनील को किसी ने बुलाया तो वह उससे बात करने उसकी छत पर चले गए। बाद में मुझे भी बुलाया तो मैं भी वहां गया और छत से फोटो खींचने लगा। अचानक मेरे हाथ में एक चाय का ग्लास पकड़ा दिया गया। मैं लोभी दो लोभो के बीच में फंस गया। न चाय पीने का लोभ छोड़ सका और न फोटो खींचने का। दोनों काम साथ साथ चलते रहे। इतनी सारी कुर्जा और इतने पास देखकर मैं हैरत मैं था। कैमरा बताता हे की मैं ९० मिनट तक फोटो खींचता रहा। जब काम ख़त्म हुआ तब चाय पिलाने वाले सज्जन को धन्यवाद दिया और उनसे परिचय हुआ तो पता चला की वह सेवाराम हे जो की यहाँ कुर्जा के संरक्षण पर अकेले काम कर रहे हे। इस समय बिजली के तार के खम्भे हटवाना उनकी पहली प्राथमिकता हे। जैसा की इस देश में होता हे वैसा ही सेवाराम के साथ हुआ की बिजली विभाग ने उन पर बिजली चोरी का आरोप लगा कर एक लम्बा चौड़ा बिल भेज दिया। अब आप लड़ते रहो। मैंने सेवाराम को समझाया की यह सब तो शुरुआत हे यदि आगे भी कुर्जा के लिए काम करते रहोगे तो तुम्हे और भी कई आलसी लोगो से इसी प्रकार सामना करना पडेगा। वहां की समस्या का आसान सा हल हे की बिजली के खुले तार की बजाय केबल डाल दी जावे।
खीचन और जोधपुर के फोटो देखकर के का भी मन हुआ इन जगहों को देखने का। उसे होली पर हाथी को सजाने का त्योंहार जयपुर मैं देखना था तो सोचा की होली पर जयपुर खीचन और जोधपुर हो आया जावे।
जयपुर का हाथी सजाने का त्योंहार प्रबंधन की कमी के कारण फीका रहा। खीचन और जोधपुर फिर से बहुत ही बढ़िया रहे। इस बार हमारे साथ एक जर्मन महिला भी थी। उसे बता दिया गया था की खीचन मैं सोने की कोई व्यवस्था नहीं हे और हम जो मिलेगा उसी में संतुष्ट रहेंगे लेकिन खीचन में सुबह जब कुर्जा आती हे उसे देखने के लिए यह सब तकलीफ गंवारा करनी होगी। दो बिस्तरों में तीन लोग सोये। क्या खुर्राटे मारती थी भाई वह महिला। हम दोनों रात भर नहीं सोये और सुबह उठ कर जब उसने पूंछा की रात को नींद आई तो हमारे मुंह से शब्द नहीं निकला। वह ५ स्टारी महिला सुबह कुर्जा को देखकर इतनी प्रसन्न थी की जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। घर पहुँचने के बाद उसका इ मेल आया की ऐसे कोई और स्थान पर यदि आप लोग जा रहे हो तो मुझे अवश्य बताना मैं भी साथ चलूंगी। इश्वर जाने भविष्य का।
मैं कुर्जा की फोटो के लिए एक बार और खीचन जाऊंगा लेकिन इस बार कुछ दिनों तक रूकूंगा ताकि दोबारा वापस न जाना पड़े।
कुर्जा को अंग्रेजी में Demoiselle Crane कहते हे।