Tuesday, December 22, 2009

फिरोजाबाद







पिछले तीन सप्ताह से हम बाहर थे। आगरा, फिरोजाबाद, जयपुर और फिर दुन्दलोद हमारे ठिकाने थे। इन सबके बारे में विस्तार से बताऊंगा पहले फिरोजाबाद की हो जाये। चूड़ियों का शहर चूड़ियों का देश फिरोजाबाद । यदि आप आगरा तक जाते हे तो फिर ४५ किलोमीटर और ही तो जाना हे। यह शहर ही चूड़ियों का हे जहाँ कांच के अलावा कोई और बात नहीं होती।

जब हम फिरोजाबाद पहुंचे तब तक सुबह के १० बज चुके थे और शर की गलियां आबाद हो चुकी थी। चारो चूड़ियाँ थी कोई सर पर ले जा रहा था तो कोई साइकिल पर और कोई हाथठेले पर। गलियों में चूड़ियों के टुकड़े बिखरे पड़े थे।

फैक्ट्री में हमें जाने की अनुमति नहीं मिली अन्यथा पिघले हुए कांच को देखने का अनुभव अलग ही होता। चोरी छुपे जहाँ हम जा सके वह जगह थी जहाँ पर की वह चूड़ी पर हिल का काम करते हे। पहले तो हमें सादर बुलाया और जब मेरा कैमरा चलते देखा तो उन्हें घबराहट हुई और फिर सौ बहाने की मालिक का बार बार फ़ोन आ रहे हे की आपको फोटो न लेने दे मैंने कहा की जिस काम को आप सड़क पर कर रहे हे उसमे क्या डर। आपकी दूकान सड़क पर खुलती हे कोई भी सड़क पर खड़े होकर यह सब देख सकता हे तो घबराने की क्या बात हे। लगता हे चोर की दाढ़ी में तिनके वाला कोई मामला रहा होगा।
फिरोजाबाद शहर में कोई डेढ़ लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से और तीन लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से चूड़ी से अपनी आजीविका कमाते हे।

परिवार में सब को पता था की मैं किस समय कहाँ पर रहूंगा। फिरोजाबाद पहुँच कर के ने अपने लिए चूडिया खरीदने की कोशिश की तो उसके नाप की केवल सादा चूड़ियां ही मिली। रानी ने कंगन चाहे तो फिर सबके लिए कंगन ही ख़रीदे गए। मेरे मामा की ससुराल फिरोजाबाद में हे और वह परिवार चूड़ियों का ही धंधा करता हे लेकिन उनकी सिफारिश भी हमें फैक्ट्री में नहीं ले जा सकी।

फिर कभी किसी बार प्रयास करूंगा फैक्ट्री देखने का।


Thursday, November 26, 2009

पचमढ़ी यात्रा




एक दिन शैलेश दुबे का फ़ोन आया मौसम बड़ा सुहाना हे पचमढ़ी चले! मैं सितम्बर से जाने की सोच रहा था लेकिन संयोग नहीं बन रहा था। सोचा चलो हो आते हे। कैमरा उठाया कुछ कपड़े बैग में रखे और जबलपुर में शैलेश से मिले। ५ घंटे की कार यात्रा ने हमें पचमढ़ी पहुंचा दिया। रास्ते में फोटो खींचने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था लेकिन Combine Harvester ने वर्षों की मुराद पूरी कर दी। Agency कई सालो से फोटो मांग रही थी और उस समय मुझे फुर्सत नहीं होती थी। बढ़िया फोटो मिली और Agency ने भी तुरंत स्वीकार कर ली। रास्ते भर Lantaana की झाड़िया दिखती रही लेकिन उन पर शायद ही कोई तितली बैठी दिखी हो। मैं समझता हूँ की यह pesticides के अधिक उपयोग के कारण हे। पिपरिया पहुँचते पहुँचते जोर की भूख लग आई थी। शैलेश ने ढाबा ढूंढना शुरू किया तो हमारी खोज मटकुली में आकर ख़त्म हुई। घर से बाहर निकलने पर कुछ लोगो मांसाहारी खाने का शौक होता हे शैलेश उनमे से एक हे। खाना खाने बाद जब उन्होंने ढाबे वाले को यह कहा की मुर्गी की जान गई और खाने वाले को मजा नहीं आया ऐसा काम मत किया करो तो उसका जवाब था आप ही हे जिन्हें मजा नहीं आया बाकी तो किसी ने कोई शिकायत नहीं की। क्या करते पैसे दिए और चल दिए।


पचमढ़ी पहुंचे तो ठंडक हो चली थी।


मध्य प्रदेश में पचमढ़ी एक ऐसा स्थान हे जहाँ पर की ९० प्रतिशत से अधिक रहवासी पर्यटन पर निर्भर हे। इस गाँव में अब २०० से ज्यादा जिप्सी हे और ५० से ज्यादा होटल। आदमी तो आदमी अब वहां जानवर भी पर्यटकों की ओर देखने लगे हे। महादेव पर बंदरो ने मेरे कैमरा को खाने का सामान समझा और मुझ पर दौड़ पड़े वह तो गनीमत रही की स्थानीय दुकानदार लड़के दौड़ पड़े वरना मुसीबत हो जाती। महादेव के रास्ते भर बन्दर सड़क किनारे बैठे मिलते हे क्योंकि पर्यटक उन्हें खाने के लिए कुछ न कुछ डालते रहते हे और वह बाद में इसे अधिकार पूर्वक मांगने लगते हे। एक ग़लत आदत जिसका की नुकसान दूसरो को उठाना पड़ता हे।


पचमढ़ी में एक बोर्ड लगा हे जो की पचमढ़ी के होटल association ने लगाया हे। इसे पढकर पचमढ़ी की होटल की व्यवस्था के बारे में पता चलता हे। पर्यटकों को सावधान करता हुआ यह बोर्ड बताता हे की यह समस्या कितनी विकराल हो चली हे। लपका एक बहुत ही प्रचलित शब्द हे आगरा के लिए लेकिन उसकी परिभाषा यहीं पढने को मिली।

पचमढ़ी शीताफल के भाव जगह के अनुसार बदलते हे। महादेव में महंगे तो रास्ते में सस्ते और पचमढ़ी में तो और भी ज्यादा महंगे।

पचमढ़ी में अब सड़क पर चलना मुश्किल होता जा रहा हे। बाज़ार में गाड़ियों की वजह से जगह नहीं बचती। मेरा ख्याल हे की एक समय सीमा के अन्दर पचमढ़ी बाज़ार में गाड़ियों का प्रवेश प्रतिबंधित कर देना चाहिए और कुछ रास्तो पर एकमार्गीय व्यवस्था कर देनी चाहिए। यह सही हे की अब पर्यटक भी पचमढ़ी क्या हे और उसका किस प्रकार भ्रमण हेतु उपयोग किया जावे यह नहीं जानते। सूर्यास्त देखने की होड़ में मची भीड़ को उस जगह की सुन्दरता से कोई वास्ता नहीं था। पचमढ़ी दिन पर दिन गन्दी होती जा रही हे polythene और गुटके के pouch हर जगह पड़े थे। थोड़े बहुत भी नही लेकिन इतने की आसानी से इस समस्या को हल करने का कारण ख़ुद बता रहे थे। लेकिन इस सबके बाद पचमढ़ी में भीड़ से दूर एकांत जगह ढूँढने में कोई परेशानी अब भी नही होती। कई ऐसे स्थान हे जहाँ पर की पर्यटक जाना पसंद नहीं करते या जाते भी हे तो ज्यादा देर नहीं ठहरते।

पचमढ़ी अब भी सुहानी हे। जब भी मौका लगे तब हो आओ.

Monday, October 19, 2009

शेर का आदमखोर होना

शेर का आदमखोर होना, कितनी सामान्य सी बात हे। बचपन से हम यही तो सुनता आए हे। कार्बेट हो या एंडरसन या कोई और शिकारी सब यही तो कहते आए हे। शेर आदमखोर हो जाता हे आदमी को उससे बचकर रहना चाहिए। क्या सब शेर आदमखोर होते हे? नहीं ऐसा नहीं हे लेकिन क्यों हो जाते हे इस पर फ़िर कभी चर्चा करेंगे। शेर आदमखोर हो जाता हे इसमे क्या नई बात हे। पहले भी यह होता था और आज भी यदाकदा यह सुनने को मिल जाता हे। पहले शेर ज्यादा थे और आदमी कम। आज आदमी और मवेशी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा हे और शेर कम। आजसे सौ साल पहले शेर की आबादी के कारण उनके पास रहने की जगह कम थी तो आज आदमी की आबादी के कारण उनके पास रहने की जगह कम हे। वस्तुतः देखा जाए तो शेर कभी भी आजादी से नही रह पाया। न तब और न अब। आदमखोर होने पर वह पहले भी मारा जाता था और आज भी मारा जाता हे या उसकी आजादी छिनकर उम्रकैद के रूप में किसी चिडियाघर में भेज दिया जाता हे।
सवाल यह हे की क्या हम आदमी को उसकी आबादी के हिसाब से रहने की जमीन उपलब्ध करा रहे हे। यदि इसका उत्तर हां हे तो हम शेर के रहने के लिए ज्यादा जमीन नहीं छोड़ रहे हे। क्या इसका उत्तर न में हो सकता हे की हम आदमी को उसकी आबादी के हिसाब से रहने की जमीन उपलब्ध "न" कराये। यह "न" ही शेर का भविष्य तय करता हे।
यदि हम आदमी की आबादी पर अंकुश नहीं लगा पाते हे तो वाघ संरक्षण का महत्त्व क्या हे? हमारी नीति क्या हे? वाघ के लिए हमने एक नीति बना ली की यदि वह दो व्यक्तियों को मार देता हे उसे पकड़कर बाड़े में रखना होगा अथवा जान से मारना होगा और आदमी के प्रति सरकारी नीति है की वाघ के द्वारा आदमी मारे जाने पर सरकार उसके जीवन का मूल्यांकन किए बिना उसके आश्रितों को ५० हजार या एक लाख रुपया दे देगी।
वर्तमान वाघ संरक्षण की नीति में कई खामिया हे जो की वर्तमान परिस्थितियों के कारण हे लेकिन फिर भी हम उन परिस्थितियों को नकारते चले आ रहे हे। आजादी के बाद वाघ को बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान का निर्माण किया जाने लगा। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान इसका पहला उदाहरण हे। आज वाघ को बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान को एक बाड़े के रूप में परिवर्तित किया जा रहा हे। क्या शेर को सिर्फ़ जीवित रखने के लिए यही एक विकल्प बचा हे ? यह एक लम्बी बहस और केवल बहस का मुद्दा हे जिसका की आजतक मैंने तो कोई हल नहीं सुना यदि आपके पास कोई सुझाव हो तो अवश्य सरकार को लिखे की इस बढती आबादी वाले देश में शेर को रहने के लिए किस प्रकार जमीन उपलब्ध कराई जा सकती हे।
शेर बचाओ का हल्ला १९७१ में शुरू हुआ। पिछले ३८ सालो में शेर तब की वनिस्वत आज और भी कम हो गए। इतने सालो में शेर तो नहीं बढ़ पाये और न ही सुरक्षित रह पाये लेकिन शेर को बचाने के नाम पर ढेर सारे लोग इस देश दुनिया में अच्छी खासी जिन्दगी जी रहे हे और यदि कोई मर रहा हे तो वह हे शेर।
यह सिद्ध हो चुका हे की मानव जीवन की कीमत इस पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणियों से अधिक हे। मनुष्य और जानवर के जीवन के सवाल पर मनुष्य हमेशा जीतता आया हे। क्या हम इस समीकरण को बदल सकते हे? शेर
संरक्षण के नाम पर हमारी सरकार कभी भी कटिबद्ध नहीं रहीं और आज आबादी के दबाब में यह सब बातें थोथी लगती हे। संरक्षण के प्रति सबसे गंभीर खतरा तो मनुष्य की बढती आबादी हे। इस आबादी को जिंदा रहने लिए संसाधनों की आवश्कता हे। इस देश की दो तिहाई आबादी जो गावों में रहती हे वह प्राक्रतिक संसाधनों पर निर्भर हे। उन संसाधनों से उसका अधिकार कैसे छिना जा सकता हे और आख़िर वह संसाधन कब तक उनकी जरूरतों को पूरा कर पायेंगे।इस देश की जो आबादी अपना खाना पकाने के लिए लकड़ी का उपयोग करती हे क्या उसका कोई विकल्प हे जो की उन्हें अगले पाँच सालो में उपलब्ध करवा दिया जावे? शेर के जिंदा रहने का एक उत्तर इस प्रश्न में छिपा हे।
देश की जो आबादी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर क्या हम उन संसाधनों को बचाने के लिए आबादी पर अंकुश लगा पायेंगे? शेर के जिंदा रहने के सवाल का दूसरा उत्तर इस प्रश्न में छिपा हे।
अब हमें इस हकीकत को सार्वजानिक रूप से स्वीकार करना होगा की शेर अब आजादी से नहीं रह पायेंगे। अब उन्हें रहना हे तो आदमी की तरह एक बाड़े में ही जिन्दगी गुजारनी होगी। विज्ञान की अवधारणा के मुताबिक विकास की प्रक्रिया में कुछ प्रजातिया पृथ्वी से विलुप्ति की कगार पर आ जाती हे तो क्या शेर भी इस प्रक्रिया का एक हिस्सा होने जा रहा हे?
आज पुराने पन्नो को टटोल रहा था तो यह लेख लिखा हुआ एक पन्ना मिला जो की शायद मैंने आज से ५-६ साल पहले लिखा था तो सोचा की इसे यहाँ लिख दू ताकि आप भी पढ़ सके और आप अपने सुझाव सरकार को भेज सके। यहाँ शेर और वाघ से मेरा आशय tiger से हे।

Thursday, October 1, 2009

स्वर्गीय सीताराम दुबे.

मेरे जीवन में मैं अपने दो मित्रो को हमेशा याद करता हूँ और करता रहूँगा। दोनों से मेरी भेंट मध्य प्रदेश पर्यटन की नौकरी के दिनों में हुई थी। अफ़सोस की दोनों ही इस दुनिया से बहुत जल्दी कूच कर गए। जुल्फिकार मोहम्मद खान और सीताराम दुबे, अब दोनों ही स्वर्गीय। दोनों ही मेरे मातहत रहे लेकिन उसके बाद भी हमारे बीच एक दोस्ती का रिश्ता रहा जो की उन दोनों के जीवन के अन्तिम दिनों तक कायम रहा। श्री आर पी चौहान ने मुझे सूचित किया की दुबे जी को अभी अभी अस्पताल में भरती किया हे पचमढ़ी में दिल का दौरा पडा था ऑपरेशन की सलाह दी हे डॉक्टर ने। ऑपरेशन हो रहा हे लेकिन यह भी कहते हे की दोनों किडनी काम नहीं कर रहीं हे शकर की बीमारी भी हे। देखो क्या होता हे। सोचा आपको बता दू।
वहाँ यह बात सबको पता थी की मेरे और सीताराम के बहुत अच्छे सम्बन्ध हे यह बात और हे की हम सालो एक दूसरे से नही मिल पाते हे। फ़ोन पर लगभग हर पखवाडे बात हो जाती थी। सीताराम दुबे ने अपने स्वास्थय के बारे में मुझे कोई चिंताजनक स्थिति हो ऐसी बात कभी नहीं बताई। सीताराम और मैं साथ साथ पचमढ़ी और कान्हा में रहे। उन ६-७ सालो की अनगिनत यादे हे। सीताराम दुबे के जाने से मैंने एक ऐसा मित्र खो दिया जो की सूख दुःख के दिनों में हमेशा मेरा जोश बढाता रहा।
मैं इस दुःख से आसानी से नहीं उबर पाऊंगा यह मुझे पता हे। सीताराम दुबे की यादे हमेशा मुझे उसकी याद दिलाती रहेंगी। कभी उसके किस्सों का यहाँ वर्णन करूंगा।
स्वर्गीय जुल्फिकार और सीताराम दुबे दोनों को मैं नमन करता हूँ।
इश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे ऐसी मेरी प्रार्थना हे।

Monday, September 21, 2009

केरल यात्रा

मेरी केरल यात्राओं में केवल पहली केरल यात्रा ही ऐसी एक यात्रा हे जिसकी मेरे पास बहुत सुनहरी यादें हे पिछले कुछ महीनो से शैलेश दुबे बार बार याद दिला रहे थे की चलो केरल हो आए केरल की अपनी समस्याए हे चावल रोज खाने वालो के लिए तो और भी ज्यादा समस्या हे शाकाहारी होना भी एक समस्या हो सकता हे लेकिन केला संतरा जैसे फलो का स्वादिष्ट होना बड़ी समस्या थी



मैं ११ सितम्बर को ताला से चला तो उसी दिन शैलेश मंडला से और हम लोग जबलपुर स्टेशन पर इकट्ठे हुए कुछ समय अपने पुराने मित्रो के साथ बैठकर गप्प बाजी की हमें श्रीधाम एक्सप्रेस गाड़ी से इटारसी पहुंचना था गाड़ी नियत समय पर प्लेटफार्म पर लगी और नियत समय पर चल भी दी लगा की यात्रा की शुरुआत बड़ी ठीक हो रही हे और ऐसा ही हुआ भी। कम से कम इटारसी तो ठीक समय पर पहुँच गए रानी ने कहा जरूर था की वह खाना लेकर स्टेशन पर जायेगी लेकिन हमने ही मना कर दिया जैसे तैसे हम अपने सामान को घसीट कर एक नम्बर प्लेटफोर्म पर पहुंचे, यह सोच कर की यहाँ तो ठीक ठाक cafetaria होगा तो उसमे बैठकर खाना खा लेंगे. लेकिन हुआ ठीक इसके उलटा इतना बोझ लेकर स्टेशन के बाहर जाने की हिम्मत नहीं थी सो सोचा अब जैसा भी हे यहीं खा लिया जाए



खाने के इन्तजार में बिल्ली के बच्चो जैसे मोटे चूहों को टेबल के नीचे घुमते देखते रहे खैर खाना खाकर बाहर निकले तो मीठा खाने के नाम पर श्रीखंड खाया शायद यही गलती थी



केरल एक्सप्रेस समय पर आई कहाँ तो हमारी एक टिकेट प्रतीक्षा सूचि में थी और यहाँ सारा डिब्बा ही खाली पडा था धन्य हो रेल की माया ३३ घंटे की उबाऊ थकान भरी रेल यात्रा से जब छुटकारा मिला तो वापसी की रेल यात्रा का डर सताने लगा


स्टेशन के पास ही हमारा होटल था पहुँचने में कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई तीसरे साथी कुल्हाली पहले ही वहां पहुँच चुके थेनहाकर थकान उतारी और पेटपूजा के लिए होटल से बाहर निकलेमछली प्रेमियों को जो पहला होटल दिखा वह था मुग़ल रेस्तारांत और हम लोग उसी और बढ लिएछोटे ढाबो में खाने का स्तर कोई ख़ास ठीक नहीं होता हेचावल बहुत ही घटिया प्रकार का होता हेकहीं कहीं इडली में इल्ली नजर जाती हे मेरा ख्याल हे की उत्तरभाशियो को खाने में जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना चाहिएभोजन की बात करूँ तो मेरी केरल यात्रा में केवल बड़े होटलों को छोड़कर बाकी जगह खाना बहुत ही मामूली किस्म का थाबोट में भी खाने की किस्म कोई अच्छी नहीं थी

केरल आकर कथकली देखने की इच्छा थीमालूम पडा की स्टेशन से २०० मीटर दूर ही एक परिवार इस प्रकार का आयोजन रोज शाम को बजे करता हेहम लोग बजे पहुंचे तो देखा की कलाकार अभी अपना चेहरा रंग रहे हेटोली के मुखिया चेहरे पर किए जाने वाले रंग का महत्त्व समझा रहे थेदो घंटे बिताने के बाद समझ में आया की यह परिवार कितनी मुश्किलों से इस विधा को जिंदा रख पेट पालने की कोशिश में लगा हुआ हे१५० रूपये टिकट और उस शाम देखने वाले कुल दर्शकऐसा रोज होता हे कभी कभी तो केवल दर्शक के लिए यह सब करना पड़ता हेहमारे होटल वाले को भी इस जगह की जानकारी नहीं थीव्यावसायिकता की कमी के कारण ग्राहक दूकानदार के पास नहीं पहुँच पा रहा हे, ऐसा हमें महसूस हुआ

कोचीन से मुन्नार का रास्ता दर्शनीय हेमुन्नार के बारे में सूना था की निलगिरी ताहर के बारे में सूना था की वह आसानी से देखने को मिल जाते हे लेकिन वहां तो लोगो को हफ्तों से दर्शन नही हुएचाय बागानों में छिडकाव होने की वजह से तितली भी देखने को नहीं मिलीमुन्नार पहुँच कर कर पहले मेरी तबियत ख़राब हुई और बाद में शैलेश कीमैं तो एक दिन कमरे से बाहर ही नही निकलादो रात मुन्नार में रूक कर जब वापस रहे थे तो पता चला की Bhopal से Mathew भी छुट्टी मनाने यहाँ आया हुआ हेमुन्नार से हम सीधे बेक वाटर में एक रात बिताने के लिए चल दिएबेक वाटर की यात्रा कोई ज्यादा अच्छी नही रहीशायद हम लोगो की अपेक्षाए ज्यादा थी जिसके कारण हमें सब कुछ फीका फीका लाग रहा थारात को जब एसी चला तो पता चला की जनरेटर का सारा धुंआ एसी के माध्यम से कमरे में रहा हेजनरेटर बंद करा कर उमस भरी रात पंखे के नीचे काटीशाम Mathew के साथ कटीपुरी केरल यात्रा की यहीं एक यादगार शाम थी या फ़िर कथकली नाच देखने वाली शाममुन्नार के बाद तो हम लोग एक दिन पहले वापस आने की सोच रहे थे

मंडला पहुँच कर शैलेश का फ़ोन आया की आज तो खूब जी भर के रोटी खाऊंगा