Sunday, May 30, 2010

Gir


गिर के बारे में सुना बहुत था लेकिन देखा कभी नहीं था तो जब उरी ने गिर जाने का कार्यक्रम बनाया और मुझे भी आने को कहा तो मैं सहर्ष तय्यार हो गया। यहाँ से गिर जाने का मतलब हे ३६ घंटे की थकाऊ यात्रा??

सुबह पांच बजे घर से निकल कर कटनी पहुंचा तो पता चला की महाकोशल नब्बे मिनट देर से आएँगी। लगा शुरुआत अच्छी नहीं हे। जबलपुर पहुँचते तक सोमनाथ एक्सप्रेस का समय हो गया था तो दो पानी बोतल लिया और अपनी सीट पर जा बैठा। ५ मई का दिन और ४४ डिग्री तापमान में शयनयान की यात्रा। मान कह रहा था की काहे को हामी भर ली स्काइप पर बात कर लेते। रानी और उनकी बिटियाँ इटारसी स्टेशन पर चाय लेकर आई थी। होशंगाबाद स्टेशन पर ओमहरी खाना लेकर आये थे और उनके साथ माताराम भी आई थी। उम्र की वजह से अब उनसे ज्यादा चलते नहीं बनता हे। उनका डर था की शायद में फिर इस बार घर न आऊं क्योंकि पिछली बार जब भोपाल गया था तो इतनी जल्दी में था की होशंगाबाद नहीं गया था इसलिए वह मुझसे मिलने स्टेशन तक आई थी। मैंने उन्हें आश्वस्त किया की वापसी में मैं होशंगाबाद आऊँगा फिर बांधवगढ़ जाऊंगा। ओमहरी खाना लेकर आये थे सो कम से कम एक समस्या तो हल हुई। गुजरात की मेरी यात्राओं का सबसे बड़ा दुःख हे की वहां ट्रेन में सुबह चाय नहीं मिलती और जब मिलती भी हे तो कप इतना छोटा होता हे की वह पांच रूपये की डकैती जैसा लगता हे इसलिए मैं चाय खरीदने से इनकार कर देता हूँ। अखबार मिलना तो और भी दूर की कौड़ी साबित होते हे। अहेमेदाबाद में सुबह मुकेश मिलने आये। दोनों ने स्टेशन पर एक चाय पी कुछ अपने रोने रोये, परिवार की बाते की इतना में गाडी चलने का समय हो गया था। गुजरात का एक नक्शा दे गए थे मुकेश। जिसने बड़ी सहायता की रास्ते में तसल्ली देने में की बस अब इतना ही तो और बचा हे जूनागढ़। स्टेशन से एक टेक्सी की, कुछ आम, तरबूज-खरबूज खरीदे और अगला सफ़र सासन का शुरू। जूनागढ़ से सासन कुल ५५ किलोमीटर हे। यदि बस से जाना चाहे तो यात्रा बुरी नहीं। बस भी लगभग उतना ही समय लेती हे जितना टेक्सी। हमारे आगे आगे एक बस चल रही थी जो की सासन पहुँचने तक हमारे आगे आगे थी बस शहर में ही हम उससे बाजी जीत पाए थे जो की हारे हुए जुआँरी के आखिरी दाव जैसा किस्सा था। गुजरात पर्यटन और वन विभाग सिंह सदन नामक एक होटल चलाते हे जो की शासकीय हे। उसे देखने के बाद मैंने सोचा की बेहतर हे की में बाहर कहीं कोई होटल देखूं । सड़क पार कई होटले हे। मेरी-तलाश होटल अन्नपूर्णा पर जाकर ख़त्म हुई। साफ़ सुथरा छोटा सा ऐ सी लगा हुआ कमरा। जगह छोटी हो या बड़ी सस्ते होटलों में बाथरूम अभी भी साफ़ नहीं होते हे। यहीं हाल अन्नपूर्णा का भी था। मेरे शिकायत करने के बाद मुझे आश्वस्त किया गया की इस साल बरसात में इस शिकायत को दूर कर दिया जावेगा।

रात के ग्यारह बजे उरी और उनके मित्र ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। कुछ देर उनसे बात हुई और सुबह का कार्यक्रम जानकर उनने विदा ली।

उनके साथ एक गाइड राजकोट से आये थे। बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। वन विभाग के स्थानीय कर्मचारियों पर उनका अच्छा प्रभाव था। सुबह हम लोग साथ साथ घूमने गए। एक बब्बर शेर को सड़क पर गाड़ियों के आगे आगे चलते हुए देखा। यह मेरा पहला जंगली बब्बर शेर था जिसकी मेने फोटो खींची। फिर कुछ ही मिनटों बाद वन विभाग के कर्मचारियों ने उसकी वो गत बनाई की मुझे प्रार्थना करनी पड़ी की हे इश्वर अगले जनम में मुझे कम से कम बब्बर शेर तो मत बनाना।

नाश्ते के लिए चयनित किये गए स्थान को देखकर मैं चकित था। यहाँ गाइड महोदय पर्यटक के पैसे के दम पर ड्राइवर और वन विभाग के गाइड का पूरा ध्यान रखते हे। गाइड महोदय ने उरी को कहीं एक रात के लिए ले जाने का कार्यक्रम तय किया था। मुझे देखकर साफ़ साफ़ बता दिया की वहां यह नहीं जा सकते। मैंने भी सोचा की ठीक हे इस बेचारे को क्या पता यह तो अपने धंधे की सोच रहा हे तो इस दाल भात में मैं क्यों मूसरचंद बनू।

मैं दोपहर में और अगली सुबह अकेला घूमने गया। शेर दिखे लेकिन कोई ख़ास नहीं।

अगले दिन दोपहर में उरी वापस आये तो पता चला की सिंह सदन में उनके लिए कमरा नहीं हे। घबराए से मुझे फोन किया। मैंने भरोसा दिलाया की अन्नपूर्णा आ जाओ व्यवस्था हो जायेगी। सिंह सदन से एक तिहाई कीमत में एक ठीक ठाक कमरे की व्यवस्था हो गई। उरी ने बताया की पिछले २४ घंटो में केवल एक चिड़िया का फोटो खींचा हे वह भी कोई विशेष नहीं। जमीन पर सोये। खाना भी कोई ठीक नहीं था। जैसे तैसे खाना खाया। कहीं घूम नहीं पाए और एक दिन बर्बाद करके वापस आ गए। हमने अब उसे छोड़ दिया हे। अब केवल हम लोग ही होंगे। उरी ने जब यह कहा तो मैंने कहा ठीक हे।

गिर में यदि आप स्थानीय भाषा नहीं जानते हे अथवा यदि आपके स्थानीय कर्मचारियों से सम्बन्ध नहीं हे तो आप एक सामान्य पर्यटक की तरह पार्क में घूम कर वापस आ जायेंगे। स्थानीय भाषा अथवा व्यक्ति से सम्बन्ध होने पर आपके लिए सारे द्वार खुल जाते हे। शेरो को खदेड़ कर आपकी जीप के सामने लाया जा सकता हे अथवा आपको पैदल उतारकर शेर दिखाने के लिए जंगल में ले जाया सकता हे। मैं यह सब इसलिए लिख रहां हूँ की मैंने यह सब प्रत्यक्ष में होते देखा हे। पैसा दोनों ही शर्तो में देना पड़ता हे। यह सब काम उन लोगो के लिए रोजमर्रा की बाते हे।

एक बार जब उरी को उतार कर ले जाया गया तो मैं भी उनके साथ गया और जो दिखाया गया उसके लिए मैं सोच रहा था की यहाँ क्या ऐसे फोटोग्राफर आते हे जो की यह देख कर खुश हो जाते हे। मुझे तो उसमे कोई विशेष फोटो नजर नहीं आई किन्तु बाद में देखा की उस समय के फोटो ७०% छोटे कर के लोगो को दिखाए जा रहे थे और लोग उसकी तारीफ़ कर रहे थे। अब डिजिटल का सारा खेल समझ में आ रहा था।

हमने जंगल में पुनः उतरने के लिए मना किया तो हमें ज्यादा अच्छे फोटो मिले।

वापसी में मुकेश जी को पुनः क्रतार्थ किया और शाम को घर वापसी की यात्रा शुरू kee।

गिर का तमाशा देखने दिखाने के लिए एक बार पत्नी को लेकर फिर जाऊंगा और फिर यदि कोई व्यावसायिक बंधन नहीं हुआ तो गिर देखने की फिर कोई इच्छा नहीं.

1 comment:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सहज तरीके से लिखा है आपने.
"गुजरात की मेरी यात्राओं का सबसे बड़ा दुःख हे की वहां ट्रेन में सुबह चाय नहीं मिलती और जब मिलती भी हे तो कप इतना छोटा होता हे की वह पांच रूपये की डकैती जैसा लगता हे"
हाहाहा....बहुत खूब. लेकिन मैं हतप्रभ हूं, वहां के शेरों की दुर्दशा पर. क्या ये शेर उन वन-कर्मियों का कुछ नहीं बिगाड़ते? कैसे खदेड़ के पर्यटकों के सामने लाते होंगे? ये कैसी व्यवस्था है? एक मात्र शेर-गाह...उसका भी ये हाल .... अभी कुछ और भी लिखिये न गिर के बारे में.