Monday, October 19, 2009

शेर का आदमखोर होना

शेर का आदमखोर होना, कितनी सामान्य सी बात हे। बचपन से हम यही तो सुनता आए हे। कार्बेट हो या एंडरसन या कोई और शिकारी सब यही तो कहते आए हे। शेर आदमखोर हो जाता हे आदमी को उससे बचकर रहना चाहिए। क्या सब शेर आदमखोर होते हे? नहीं ऐसा नहीं हे लेकिन क्यों हो जाते हे इस पर फ़िर कभी चर्चा करेंगे। शेर आदमखोर हो जाता हे इसमे क्या नई बात हे। पहले भी यह होता था और आज भी यदाकदा यह सुनने को मिल जाता हे। पहले शेर ज्यादा थे और आदमी कम। आज आदमी और मवेशी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा हे और शेर कम। आजसे सौ साल पहले शेर की आबादी के कारण उनके पास रहने की जगह कम थी तो आज आदमी की आबादी के कारण उनके पास रहने की जगह कम हे। वस्तुतः देखा जाए तो शेर कभी भी आजादी से नही रह पाया। न तब और न अब। आदमखोर होने पर वह पहले भी मारा जाता था और आज भी मारा जाता हे या उसकी आजादी छिनकर उम्रकैद के रूप में किसी चिडियाघर में भेज दिया जाता हे।
सवाल यह हे की क्या हम आदमी को उसकी आबादी के हिसाब से रहने की जमीन उपलब्ध करा रहे हे। यदि इसका उत्तर हां हे तो हम शेर के रहने के लिए ज्यादा जमीन नहीं छोड़ रहे हे। क्या इसका उत्तर न में हो सकता हे की हम आदमी को उसकी आबादी के हिसाब से रहने की जमीन उपलब्ध "न" कराये। यह "न" ही शेर का भविष्य तय करता हे।
यदि हम आदमी की आबादी पर अंकुश नहीं लगा पाते हे तो वाघ संरक्षण का महत्त्व क्या हे? हमारी नीति क्या हे? वाघ के लिए हमने एक नीति बना ली की यदि वह दो व्यक्तियों को मार देता हे उसे पकड़कर बाड़े में रखना होगा अथवा जान से मारना होगा और आदमी के प्रति सरकारी नीति है की वाघ के द्वारा आदमी मारे जाने पर सरकार उसके जीवन का मूल्यांकन किए बिना उसके आश्रितों को ५० हजार या एक लाख रुपया दे देगी।
वर्तमान वाघ संरक्षण की नीति में कई खामिया हे जो की वर्तमान परिस्थितियों के कारण हे लेकिन फिर भी हम उन परिस्थितियों को नकारते चले आ रहे हे। आजादी के बाद वाघ को बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान का निर्माण किया जाने लगा। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान इसका पहला उदाहरण हे। आज वाघ को बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान को एक बाड़े के रूप में परिवर्तित किया जा रहा हे। क्या शेर को सिर्फ़ जीवित रखने के लिए यही एक विकल्प बचा हे ? यह एक लम्बी बहस और केवल बहस का मुद्दा हे जिसका की आजतक मैंने तो कोई हल नहीं सुना यदि आपके पास कोई सुझाव हो तो अवश्य सरकार को लिखे की इस बढती आबादी वाले देश में शेर को रहने के लिए किस प्रकार जमीन उपलब्ध कराई जा सकती हे।
शेर बचाओ का हल्ला १९७१ में शुरू हुआ। पिछले ३८ सालो में शेर तब की वनिस्वत आज और भी कम हो गए। इतने सालो में शेर तो नहीं बढ़ पाये और न ही सुरक्षित रह पाये लेकिन शेर को बचाने के नाम पर ढेर सारे लोग इस देश दुनिया में अच्छी खासी जिन्दगी जी रहे हे और यदि कोई मर रहा हे तो वह हे शेर।
यह सिद्ध हो चुका हे की मानव जीवन की कीमत इस पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणियों से अधिक हे। मनुष्य और जानवर के जीवन के सवाल पर मनुष्य हमेशा जीतता आया हे। क्या हम इस समीकरण को बदल सकते हे? शेर
संरक्षण के नाम पर हमारी सरकार कभी भी कटिबद्ध नहीं रहीं और आज आबादी के दबाब में यह सब बातें थोथी लगती हे। संरक्षण के प्रति सबसे गंभीर खतरा तो मनुष्य की बढती आबादी हे। इस आबादी को जिंदा रहने लिए संसाधनों की आवश्कता हे। इस देश की दो तिहाई आबादी जो गावों में रहती हे वह प्राक्रतिक संसाधनों पर निर्भर हे। उन संसाधनों से उसका अधिकार कैसे छिना जा सकता हे और आख़िर वह संसाधन कब तक उनकी जरूरतों को पूरा कर पायेंगे।इस देश की जो आबादी अपना खाना पकाने के लिए लकड़ी का उपयोग करती हे क्या उसका कोई विकल्प हे जो की उन्हें अगले पाँच सालो में उपलब्ध करवा दिया जावे? शेर के जिंदा रहने का एक उत्तर इस प्रश्न में छिपा हे।
देश की जो आबादी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर क्या हम उन संसाधनों को बचाने के लिए आबादी पर अंकुश लगा पायेंगे? शेर के जिंदा रहने के सवाल का दूसरा उत्तर इस प्रश्न में छिपा हे।
अब हमें इस हकीकत को सार्वजानिक रूप से स्वीकार करना होगा की शेर अब आजादी से नहीं रह पायेंगे। अब उन्हें रहना हे तो आदमी की तरह एक बाड़े में ही जिन्दगी गुजारनी होगी। विज्ञान की अवधारणा के मुताबिक विकास की प्रक्रिया में कुछ प्रजातिया पृथ्वी से विलुप्ति की कगार पर आ जाती हे तो क्या शेर भी इस प्रक्रिया का एक हिस्सा होने जा रहा हे?
आज पुराने पन्नो को टटोल रहा था तो यह लेख लिखा हुआ एक पन्ना मिला जो की शायद मैंने आज से ५-६ साल पहले लिखा था तो सोचा की इसे यहाँ लिख दू ताकि आप भी पढ़ सके और आप अपने सुझाव सरकार को भेज सके। यहाँ शेर और वाघ से मेरा आशय tiger से हे।

Thursday, October 1, 2009

स्वर्गीय सीताराम दुबे.

मेरे जीवन में मैं अपने दो मित्रो को हमेशा याद करता हूँ और करता रहूँगा। दोनों से मेरी भेंट मध्य प्रदेश पर्यटन की नौकरी के दिनों में हुई थी। अफ़सोस की दोनों ही इस दुनिया से बहुत जल्दी कूच कर गए। जुल्फिकार मोहम्मद खान और सीताराम दुबे, अब दोनों ही स्वर्गीय। दोनों ही मेरे मातहत रहे लेकिन उसके बाद भी हमारे बीच एक दोस्ती का रिश्ता रहा जो की उन दोनों के जीवन के अन्तिम दिनों तक कायम रहा। श्री आर पी चौहान ने मुझे सूचित किया की दुबे जी को अभी अभी अस्पताल में भरती किया हे पचमढ़ी में दिल का दौरा पडा था ऑपरेशन की सलाह दी हे डॉक्टर ने। ऑपरेशन हो रहा हे लेकिन यह भी कहते हे की दोनों किडनी काम नहीं कर रहीं हे शकर की बीमारी भी हे। देखो क्या होता हे। सोचा आपको बता दू।
वहाँ यह बात सबको पता थी की मेरे और सीताराम के बहुत अच्छे सम्बन्ध हे यह बात और हे की हम सालो एक दूसरे से नही मिल पाते हे। फ़ोन पर लगभग हर पखवाडे बात हो जाती थी। सीताराम दुबे ने अपने स्वास्थय के बारे में मुझे कोई चिंताजनक स्थिति हो ऐसी बात कभी नहीं बताई। सीताराम और मैं साथ साथ पचमढ़ी और कान्हा में रहे। उन ६-७ सालो की अनगिनत यादे हे। सीताराम दुबे के जाने से मैंने एक ऐसा मित्र खो दिया जो की सूख दुःख के दिनों में हमेशा मेरा जोश बढाता रहा।
मैं इस दुःख से आसानी से नहीं उबर पाऊंगा यह मुझे पता हे। सीताराम दुबे की यादे हमेशा मुझे उसकी याद दिलाती रहेंगी। कभी उसके किस्सों का यहाँ वर्णन करूंगा।
स्वर्गीय जुल्फिकार और सीताराम दुबे दोनों को मैं नमन करता हूँ।
इश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे ऐसी मेरी प्रार्थना हे।