Saturday, July 18, 2009

पानी का हाहाकार

मैं ताला में १९९० में स्थायी रूप से रहने आया। तब अपना मकान बनने का कोई विचार नहीं था। खटिया के अनुभव ज्यादा अच्छे नहीं थे। जिन कारणों से मैंने खटिया छोड़ा था वह मुझे दुबारा घर बसाने से रोक रहे थे। ५-६ साल किराए के मकान में रहा। पुरानी यादे पीछे छूटती जा रही थी। जीवन में कुछ कुछ नया हो रहा था। एक बीज को यदि लगातार हवा पानी नमी मिलती रहे तो अंकुर फूटने में देर नहीं लगती। फ़िर हम तो यह सब १७ महीने से कर रहे थे। अंकुर पल्लवित हो चुका था। अब उसे रोपने के लिए एक घर की जरूरत थी। एक मित्र ने सुझाव दिया की रंछा की और किसी ऐसे एक व्यक्ति का रहना आवश्यक हे जो की उस और हो रहे पर्यावरणीय नुकसान को रोक सके या उस पर नजर रख सके। हमने जमीन रंछा की और ढूंढना शुरू की। एक ज़मीन हमें कुछ ठीकठाक लगी उसे हमने खरीद लिया। जमीन खरीदने के बाद उससे पूंछा की आख़िर तुमने जमीन बेंची क्यो? सीधा सपाट उत्तर दिया की यह असिंचित जमीन हे इसलिए। कब से थी यह जमीन तुम्हारे पास? बाप दादा के जमाने से हे साब। तो अगर तुमने रोज एक तसला मिटटी भी इस जमीन से खोदी होती तो तुम्हारे जीवनकाल में ही इसमे कुआँ ख़ुद जाता? इस प्रश्न पर वह चुप रह गया। खैर मैंने उस पर कुँआ खुदवाया लेकिन बिजली न होने की वजह से वहाँ कभी रह नहीं पाया। आज भी वह ५ एकड़ जमीन यूँ ही पड़ी हे।

पिछले सात सालो से किराये के मकान में रह रहे थे। अचानक एक दिन एक महीने के लिए मकान खाली करने का निवेदन किया गया। कारण भी बड़ा वाजिब था। अब हमने सोचा की यदि ऐसा ही है तो क्यों न कहीं अपना मकान बनाया जाए। हरिओम ने एक जमीन देखि जिसमे की बिजली का खम्बा भी था। इस जमीन को लेने पर सबसे बड़ी मुश्किल, बिजली की, आसान होती नजर आई। यह १९९७ की बात हे। उस समय जब उसका कचरा हटाया तो मवेशी की हड्डियां सबसे ज्यादा मिली। कोई पेड़ नहीं था। विगत १२ साल में अब यह एक जंगल हो चुका हे। अब हमें फल नहीं खरीदने पड़ते।

पिछले कुछ वर्षो की बरसात को देख कर लगा की अगले कुछ वर्षों में हमें भी शहरो की तरह पानी की व्यवस्था न करनी पड़े। यह सोचकर बड़ा डर लगा की यदि ऐसा हुआ तो बड़ी मुसीबत होगी। विचार आया की एक कुआँ हो जाए और उसे recharge करने के लिए एक छोटा सी तलैय्या हो जाए तो भविष्य की मुसीबतों से छुटकारा मिल सकता हे। यह सब इस गर्मी में बमुश्किल कर पाये। अभी हम जो भी पानी उपयोग करते हे उसका एक बूँद भी पानी बरबाद नहीं होता। सब किसी न किसी पौधे को सींचता हे। हमें लगता है की इस कुँए के बाद अब हमें पानी की हाहाकार का अगले पचास वर्षों तक तो सामना नहीं करना पडेगा। यह बात अलग हे की इतने दिनों तक हम जिंदा नहीं रह पायेंगे। सर्दियों में जब कुँए का काम शुरू हुआ था तो हरिओम ने पूंछा की क्या करेंगे एक और कुँए का। मेरा जबाब था शायद तुम और मुनमुन हमारे बाद भी इस जमीन पर रहोगे तो तुम्हे उस समय ज्यादा जरूरत होगी.




1 comment:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

मज़ा आ रहा है, आपके संस्मरणात्मक लेख पढने में...बहुत दिलचस्प तरीके से लिखा है आपने..