Thursday, July 30, 2009

क्या कमरे में साँप है?

तारीख तो अब मुझे याद नहीं लेकिन यह जरूर याद हे की वह dec १९८० का महीना था और मैं लाग हट के एक नम्बर कमरे में सो रहा था। रात में किसी समय मेरी नींद खुली तो तो मुझे ऐसा लगा जैसे की मेरे कमरे में कहीं साँप हे और मैं उसकी साँस लेने की आवाज साफ़ साफ़ सुन रहा हूँ। यह साँप कहाँ से आया यह बात मेरे दिमाग में नहीं आई क्यों की लाग हट के उस कमरे में चूहे तो हमेशा ही धमा चोकडी मचाते रहते थे। उसके साँस लेने की आवाज से मुझे लगा की यह साँप ५-६ फ़ुट लंबा तो होगा ही। अब मुझे डर लगने लगा की भगवान् जाने यह कहाँ हे? बड़े डरते डरते मैंने अपने हाथ को रजाई में अन्दर ही अन्दर सरकाना शुरू किया। मेरे सिरहाने टेबल पर टॉर्च रखी हे। वही मेरा सबसे बड़ा अस्त्र हे इस समस्या से छुटकारा पाने का।उस सर्दी में डर के मारे मेरा शरीर पसीने में तर बतर हुआ जा रहा था। खैर जैसे तैसे मेरा हाथ टॉर्च तक पहुंचा। सबसे पहले मैंने बिना हिले डुले टॉर्च की रौशनी को अपने बिस्तर पर डाला ताकि आश्वस्त हो सकूँ की साँप बिस्तर पर नहीं हे। फ़िर मेने खड़े होकर रजाई को झटकारा, इसमे भी कुछ नहीं था। अब मैंने अपने पलंग के नीचे चेक किया। वहाँ भी कुछ नहीं था। धीरे धीरे मैंने पूरा कमरा चेक कर लिया लेकिन मिला कुछ भी नहीं परन्तु साँस लेने की आवाज अभी भी आ रही थी। टॉर्च बंद कर के मैं कमरे के बीचोबीच खडा हो गया यह जानने के लिए की अंततः यह आवाज आ किस दिशा से रही हे?
मुझे लगा की यह मैदान की और खुलने वाली खिड़की से आ रही हे। सोचा की चलो जाने दो लेकिन जिज्ञासा ने ऐसा करने नहीं दिया। खिड़की के पास ही यदि साँप हो तो ? इस डर से मैंने एक हाथ में तकिया पकडा और एक हाथ से खिड़की खोली। पहले एक पल्ला फ़िर दूसरा पल्ला लेकिन यहाँ भी कुछ नहीं। मैं अभी भी साँस लेने की आवाज सुन रहा हूँ। मैंने टॉर्च वहीं खिड़की पर रख, दोनों हाथ के बीच ठोडी और कोहनी खिड़की पर रख सोचने लगा की आख़िर माजरा क्या हे। कुछ देर ऐसे ही खडा रहा। अचानक मेरी नज़र खिड़की के नीचे पड़ी तो देखता क्या हूँ की वहाँ एक शेर सो रहा हे। अब तो मुझे काटो तो खून नहीं। डर के मारे गला सूख गया। झटपट मैंने खिड़की बंद की और अपने आपको बाथरूम में बंद कर लिया।कितने समय बाद हाल से स्टाफ की आवाज आना शुरू हुई यह तो ठीक ठीक याद नहीं लेकिन उनकी आवाज सुनकर मैं जब यह चिल्लाया की इधर मत आना शेर सो रहा हे तो जबाब आया की हां साब अभी अभी यूथ हॉस्टल की तरफ़ चला गया। उस समय भी और आज भी कान्हा में ठहरने के लिए लाग हट से अच्छी कोई जगह नहीं। शेर, तेंदुआ, सोनकुत्ते और गौर तो हमेशा आसपास ही घुमते रहते और चीतल-बन्दर तो वहाँ रहते ही हे।

2 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

मज़ा आ गया सत्येन्द्र जी. ये तो कुछ ऐस ही हुआ जैसे बांधवगढ में हमारे साथ. रोमांचक है यह घटना.

Avinash Upadhyay said...

Satyendra: Log Huts ke mere do anubhav hain jo aapke anubhav se mel khate hain. Main hamesha kamra number aath mein thaharta hoon aur aaj saalon ho gaye mujhe aisa karte hue. Ek dafe hum log sone ja hi rahe the (raat 11 baje honge) jab office se phone aaya ki khidki kholein to sher ki awaz sun sakte hain. Humne khidki kholi to koi awaz nahin aayi aur andhere mein kuch dikha bhi nahin. Kafi der baad, jab aankhen abhyast ho gayin aur man kahne laga ki chalo chhodo aur hum hatne lage to dekha ki boundary par hi sher khada hua hai!

Doosri dafe aisa hua ki hum subah jungle gaye hi nahin yeh soch kar ki aaj alsaye uthenge aur phir buffer mein ghoomenge. 8 baje ke kareeb kuch 5-6 dhol ka group aaya aur 8 number ke peeche, hamare saamne hi ek hiran ka shikar ho gaya!

Aapka anubhav padh kar bahut maza aaya. Chaliye koi to mila jiske anubhav hamare log huts ke anumbhav se mel khate hain.
Avinash