Tuesday, July 28, 2009

शेरों के कहानी किस्से

एक मित्र का सुझाव था की मैं मेरे किस्सों को अपने ब्लॉग पर लिखूं। मेरा प्रश्न था की क्या आप मुझसे सार्वजनिक रूप से यह कहलवाना चाहते हैं की उन दिनों हम कितनी बेवकूफी किया करते थे। खैर मैं मान गया उन बेवकूफियों को आपको सुनाने के लिए।
१४ जनवरी १९८०, मकर संक्रांति का दिन। आज के दिन पार्क तीर्थयात्रियों के लिए खुला रहता था। आसपास के क्षेत्र से लोग पैदल, बैलगाडी, साइकिल या मोटर साइकिल से श्रवण तालाब में स्नान करने आया करते थे। ऐसी मान्यता हे की दशरथ जी के वाण से श्रवण कुमार की मृत्यू इसी तालाब पर हुई थी। लोग कान्हा मैदान में बैलगाडी साइकिल खड़ी करते, महिलाए अपनी साडियां सुखाती और फुरसतिये वहीं कबड्डी खेलने लगते। यह सब मैंने देखा हे। आज की बात और है की अब वहाँ गाड़ी से उतरना भी मना हे।
कान्हा में आज का म्यूज़ियम तब कान्हा फॉरेस्ट लाज हुआ करता था। मैं किसली में था। दोपहर को यह इच्छा हुई की हम भी श्रवण तालाब तक। उन दिनों हमारे पास होटल की जीप हुआ करती थी। केशव, वाहन चालाक से कहा की चलो घूम आते हे। वह राजी हो गया। जब किसली गेट पर आए तब जाने वालों की भीड़ का पता चला। किसे न करे। भाई जितने लोग सीट पर बैठ सकते हे बैठ जाए खड़े न हो यह कर जान छुडाई। नागपुरे और कुछ अन्य अगली सीट पर मेरे साथ बैठ गए।
श्रवण तालाब में लोग नहा रहे थे, साडियों के रंग से मैदान रंग बिरंगा हो रहा था। जानवरों का दूर दूर तक पता नहीं था। कुछ देर तो अच्छा लगा फ़िर लगा की अब क्या करे। हम नहाने से तो रहे और न ही कोई पूजा पाठ करना हे तो अब क्या करे चालों वापस चलते हे। कान्हा वापस आए तो माइकल सुल्कुम के पिंजरे के पास से चीख पुकार की आवाजे आ रहीं थी। एक बच्चे ने उनमे से किसी एक तेंदुए को हाथ से पुचकारने की कोशिश की थी की उसने पंजा मार दिया। जैसे तैसे उसे मंडला अस्पताल भेजा गया।
अब तक अँधेरा हो चला था। हम भी वापस चलने की तय्यारी कर रहे थे। वापसी में गाड़ी मैं चला रहा था और नागपुरे मेरे साथ वाली सीट पर बैठे थे। कान्हा घाट उतारते तक प्रत्येक व्यक्ति शेर की बात करने लगा। क्या हो ऐसे में यदि शेर दिख जाए तो? मैं कान पकड़ कर एक तरफ़ कर दूँगा तो मैं पूँछ पकड़ कर खींच दूँगा जैसी डींगे हांकी जा रही थी। बंदरी छापर पर एक शेर सड़क पार करते हुए दिखा। अब सबकी बोलती बंद। मेरी भी। मैंने जहाँ से शेर ने सड़क पार की थी ठीक उसी जगह पर गाड़ी रोक दी। देखते क्यां हैं की शेर वहीं घास में दुबक कर बैठ गया था और हम लोगो की और देख रहा था। अब तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे। बोलती तो पहले से ही बंद थी। एक किलोमीटर दूर जब किसली गेट पहुंचे तो सब की जान में जान आई। अब तक सब चुप थे। केशव की आवाज सबसे पहले आई, बहुत बड़ा था साब। लेकिन मुझे आज तक याद नहीं हे की जब उसे सड़क किनारे बैठा देखकर मैंने गाड़ी बढाई थी तो गियर बदला या डाला था या नहीं?

2 comments:

Avinash Upadhyay said...

In kahaniyon ko zarur sunaiye. Aur jahan tak bewkoofiyon ka sawal hai, har aadmi ka apna kota hota hai. Mujhe khud apni bewkoofiyon ke baare mein likh kar ya suna kar maza aata hai!

Par baat yahan bewkoofi ki nahin hai. Apke anubhawon ki hai - aise anubhav jo zyadatar ke pas nahin hote.

To aise kisse aur likhiye. Main to aapka paathak rahoonga hi.
Avinash
P.S. Pahle aap Kanha mein hua karte the? Us Jungle to hum saal mein 4-5 baar hafte hafte bhar ja thaharte hain.

Bandhavgarh said...

Dear Avinash,
Yes I use to be in Kanha between 1978 to 1984,except 1982-83 season, as Lodge Manager with M.P Tourism. Yes when I think about that I think what was the need of stopping and looking for that Tiger but that time i was curious to know about wildlife.
I will tell about my bird watching some time.
Satyendra