Thursday, July 15, 2010

सलकनपुर

मेरा बचपन रेहटी में गुजरा। प्राइमरी और मिडल स्कूल की शिक्षा वहीँ हुई। रेहटी तब एक छोटा सा गाँव था जो की कसबे का स्वरुप लेने के लिए बेताब था। प्राइमरी के दिनों से ही हम सलकनपुर जाया करते थे। रेहटी के पंडित जी ही वहां पुजारी हुआ करते थे सो मंदिर में पहुँचने पर बिना चडावे के झोला भर प्रसाद मिल जाया करता था। नारियल चिरोंजी खाते हुए नीचे उतर आते थे। तब न तो सीडिया बनी थी और न ही ऊपर तक जाने के लिए रोड था। तब सलकनपुर देवी का मंदिर एक छोटा सा मंदिर था। नवरात्रि के समय सलकनपुर में एक मेला लगा करता था जो की अब भी लगता हे और उस समय मंदिर पर अधिकाँश परिवार किसी बच्चे का मुंडन कराने जाते थे। मेरे परिवार के भी कई बच्चो का मुंडन सलकनपुर में हुआ हे।
सलकनपुर मंदिर से सामने सीडियो की और देखे तो दूर कहीं कुछ घर दीखते हे जो की मरदानपुर गाँव हे। एक समय में बुधनी से पहले यही तहसील हुआ करती थी। मरदानपुर के पास ही एक और क्षेत्रीय महत्त्व का स्थान हे आवंली घाट। अमावस्या के दिन स्थानीय लोग यहाँ नर्मदा स्नान के लिए आते हे।
सलकनपुर जाने के समय रास्ते में कोई न कोई खेत वाला गेहूं की बाली भूंज्ता मिल जाता था तो मुठ्ठी भर दाने लेकर आगे बढ़ जाते थे। मुझे याद हे की उन दिनों आज के पामिस्ट सैय्यद रफत अली चकरी घुमाने वाला खेल खिलाया करते थे। कौन जीता कौन हारा देखने के लिए हम भी उस मजमे में खड़े हो जाते थे लेकिन एक बार हमारे मास्टर स्वर्गीय मजहर अली की डांट ने हमें उससे दूर कर दिया। स्वर्गीय मजहर अली ने मुझे पहली कक्षा से पांचवी तक पढ़ाया हे। मेरे साथियो के जीवन पर उनका क्या प्रभाव पडा यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन गलत बात के खिलाफ आन्दोलन करने का पाठ जो उन्होंने पढ़ाया और जीवन में करके दिखाया वह मुझमे आज भी हे।
वह जब हमारे घर आते थे तो मैं उनके पैर छूता था, उन दिनों यही परंपरा थी।
आज से कोई दस बारह साल पहले में भेंडिया देखने के लिए मरदानपुर गया था। जो निशान मुझे मिले थे वह सियार के थे। बचपन में रेहटी से सलकनपुर के बीच कई बार चीतल दिख जाया करते थे अब तो अगर खरगोश भी दिख जाए तो भाग्य हे। चीतल अब सेमरी के उस पार देलावादी के पास ही बचे हे।
बायाँ से सेमरी आना बड़ा आसान हे। मैं सुबह घर से दूरबीन लेकर निकलता और कोई डेढ़ दो घंटे में चिड़िया देखते हुए सेमरी पहुँच जाता था । बस स्टैंड पर एक छोटी सी दूकान थी उस पर एक चाय पी और बस में बैठकर दो घंटे में वापस बायाँ पहुंचता।
उस पैदल रास्ते में मैंने शेर और पेंथर के पंजो के निशान देखे हे और एक बरसात में बायाँ के तालाब पर शेर भी देखा लेकिन लगता नहीं हे की अब वहां कोई जानवर होगा।
सलकनपुर पहाड़ के जंगल सलकनपुर की वजह से ख़त्म हो गए तो अब उस क्षेत्र में जानवर कहाँ बचेंगे।
देवी जी अब विंध्यवासिनी हो गई हे और अब तो वहां रोप वे भी शुरू हो गया हे, पचास रूपये में आना जाना।

No comments: